शनिवार, 14 अगस्त 2010

स्व-रचित कविता -‘भौतिकवादी मानव’

मानव तेरे जीवन मूल्य, किस ओर जा रहे हैं।
भौतिकता के रास्ते ही, बस तुझको भा रहे हैं।।
जगकर प्रातः वन्दना छोड़, तूने चाय सम्भाली है।
भजनों को छोड पॉप सॉंग की, बुरी आदत पाली है।।
माँ-बाप का हाल न जाना, अपना जीवन निहाल किया।
पैसों की खातिर तूने उनका, बार-बार अपमान किया।।१।।
बच्चे मम्मी-पापा बोले, तू फूले नहीं समाता है।
माँ-बाप के बुलाने पर भी, पास कभी न जाता है।।
नौ-महीने गर्भ में तुझको, फूलों सा है प्यार दिया।
तेरे और पत्नी के तानों ने, उनका जीवन बेहाल किया।।२।।
बदल दिए सब अस्त्र-वस्त्र, पश्चिम हवा के झोके से।
भाषा बदली चेहरा बदला, बदला अपनों को धोखे से।।
तीज-त्यौहार के तौर-तरीके, बह गए मयखाने में।
भाई-बहन का किया काम तो, लगा एहसान जताने में।।३।।
बेजान-बेसहारा, सूरदास कोई, देख तुझे दया न आती है।
घायलों को देख निकल जाना, क्या यही तुम्हारी थाती है।।
बस गिरे चाहे रेल भिड़ें पर, तेरा जीवन पटरी पर ठीक चले।
किसी के दुःख-सुख में साथ नहीं, फिर भी बनते हो सबसे भले।।४।।
जिनसे शिक्षा - दीक्षा ली, उन गुरुओं का मान नहीं भाया।
कभी धर्म-कर्म में लगा नहीं, सुख-सुविधा देख के मुस्काया।।
कहीं बम गिरे कोई डूब मरे, तुझको फर्क नहीं पडता।
केवल बच्चों की खातिर तू , दुनिया से लड़ता-फिरता।।५।।
अब भी वक्त सम्भल जा प्यारे,माँ-बाप सा कोई भगवान नहीं।
सेवाकर उनका मान करे जो , उस जैसा कोई इन्सान नहीं।।
दया-धर्म और परोपकार से, तुम भी तो अनजान नहीं।
सुबह का भटका रात को आए, तो जग में अपमान नहीं।।६।।